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ईश्वर एक ही है – संकल्पना एवं विमर्श

इस्लाम हमें सिखाता है की ईश्वर सिर्फ एक है
अगर आकाशों और धरती में अल्लाह के सिवा कोई और पूज्य होते, तो वे दोनों अवश्य बिगड़1 जाते। अतः पवित्र है अल्लाह जो अर्श (सिंहासन) का मालिक है, उन चीज़ों से जो वे बयान करते हैं। - कुरान 21:22
उसके जैसा कुछ भी नहीं है या कोई भी नहीं है।
अल्लाह के अस्तित्व की विशालता और महिमा को पूरी तरह से समझने के लिए मानवीय भाषा और धारणा अपर्याप्त है।
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By Editorial Team 5 Min Read
अगर आकाशों और धरती में अल्लाह के सिवा कोई और पूज्य होते, तो वे दोनों अवश्य बिगड़1 जाते। अतः पवित्र है अल्लाह जो अर्श (सिंहासन) का मालिक है, उन चीज़ों से जो वे बयान करते हैं। – कुरान 21:22

यह घोषणा अल्लाह के सर्वशक्तिमान और विशिष्ट होने को रेखांकित करती है और उसके सिवा और कई देवताओं या भगवानों का एक ही समय में शांति से रह सकने की असंभवता को उजागर करती है।

अल्लाह का कोई संतान या साझीदार नहीं

आखिर अल्लाह को साझेदारों या संतानों की क्या आवश्यकता ? क्योंकि वह अपने गुणों में आत्मनिर्भर और पूर्ण है। ऐसी पूर्णता अगर न हो और दुनिआ को बनाने वाले अनेक भगवान् हों तो इससे दुनिआ में केवल अराजकता और संघर्ष होगा

अल्लाह के पास सारी संप्रभुता और शक्ति है।

यदि कई देवता अस्तित्व में होते, तो प्रत्येक अपने द्वारा बनाई गई चीज़ पर स्वामित्व का दावा करते, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिस्पर्धी दावे सामने आते और अंतहीन विवाद जनम लेते। हर कोई प्रभुत्व के लिए प्रतिस्पर्धा करता, सृष्टि पर अपना अधिकार जताने का प्रयास करता। यह भ्रम और अव्यवस्था को जन्म देगा, जिससे ब्रह्मांड का सामंजस्य और संतुलन कमजोर होगा।

केवल एक सर्वोच्च सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करके, आप समस्त सृष्टि पर अल्लाह की एकता, संप्रभुता और पूर्ण अधिकार को मानते हैं।

उसके जैसा कुछ भी नहीं है या कोई भी नहीं है।

अल्लाह समय और स्थान के आयामों से परे है, हमारी समझ की सीमा के बाहर विद्यमान है। जैसा कि कुरान घोषणा करता है, “उसके जैसा कुछ भी नहीं है” (कुरान 42:11) अल्लाह के अस्तित्व की विशालता और महिमा को पूरी तरह से समझने के लिए मानवीय भाषा और धारणा अपर्याप्त है।

एक ईश्वर में विश्वास करना आपके लिए और दुनिया के लिए अच्छा है।

ईश्वर की एकता को अपनाने से सांस्कृतिक, जातीय और सामाजिक विभाजन से परे दुनिआ में एकता, विनम्रता और श्रद्धा की गहरी भावना पैदा होती है। जिससे संपूर्ण सृष्टि के साथ अपने सम्बंद को पहचानने और दूसरों के साथ न्याय, करुणा और धार्मिकता को बनाए रखने का जज़्बा पैदा होता है ।